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#AkashvaniAIR #Akashvani #AIR #RadioNatak रेंगते जीव (7.6.2020) जीवन की विसंगतियां,मानवीय सबंद्धों में पड़ती दरारें, मानसिक अवसाद,चिंता और भय,हमें वो नहीं रहने देती जो हम हैं या हमें होना चाहिए। मनुष्य जीवन की इसी त्रासदी की कहानी है ओडिया के प्रसिद्द रचनाकार मनोरंजन दास का लिखा ये 'अब्सर्ड' नाट्य-शिल्प का नाटक -रेंगते जीव | मनोरंजन दास ओडिया साहित्य के जाने माने साहित्यकार हैं | वर्ष 1971 में उन्हें अरण्य फसल (नाटक)के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था | नाट्य शिल्प और कथ्य की दृष्टि से ‘रेंगते जीव’ को ‘एब्सर्ड’यानि असंगत नाटक की श्रेणी में रखा जाता है | एब्सर्डयानि असंगत नाटक, नाटक परंपरा का ही एक रूप है जो यूरोप में 1945 से 1960 के बीच और भारत में 1960 से 1975 के बीच प्रचलित था | बाद में इनका स्थान यथार्थवादी नाटको ने ले लिया | स्वतंत्रता के बाद विकसित हुए भौतिकवाद ने जीवन में निरर्थकता,निराशा, तनाव,कुंठा और अनैतिकता को जन्म दिया जो भारतीय एब्सर्डयानि असंगत नाटकों में नज़र आये | मशीनी सभ्यता ने मनुष्य को घड़ी के साथ चलने का तरीका सिखाया और इसी मशीनी जिंदगी की ऊब से अजनबीपन का एहसास और जीवन में छाई असंगतियों की अभिव्यक्ति एब्सर्ड नाटकों में हुई | अपनी शक्ति और संभावनाओं को ना पहचान पाने के के कारण एब्सर्ड नाटक का मूल स्वर मनुष्य का शून्यवादी और निराशावादी स्वर है | मानव स्वयं को टूटा और अकेले पाता है | वो अपने कंधों पर जीवन का असह्य बोझ ढोने को अभिशप्त है | उसका अपना कोई निजी व्यक्तित्व नहीं है | निरुद्देश्य भटकना उसकी नियति है | एब्सर्ड या असंगत नाटक इसी संघर्षपूर्ण, तनाव से भरी ज़िन्दगी को नाटकों में उतारते हैं | एब्सर्ड नाटककारों का मानना है कि मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक का समय अपनी इच्छा के अनुरूप नहीं जीता है | उसका समस्त जीवन, ज़बरदस्ती का ओढ़ा हुआ जीवन है इसलिए व्यर्थ है, निरर्थक है | भीड़ में भी वो अकेला है | नाते-रिश्ते झूठ हैं, प्रपंच हैं इसलिए इन नाटकों के पात्र अक्सर नैतिक बंधनों को तोड़ते हुए नज़र आते हैं | और तो और, जिन्हें हम सामाजिक प्रतिबद्धता मानते हैं उसे नकारते नज़र आते हैं | एब्सर्ड नाटक का कथ्य बड़ा सूक्ष्म होता है | कथ्य या विषय में कोई क्रमबद्धता भी नहीं होती, इसलिए नाटक जहाँ से शुरू होता है वहीँ खत्म हो जाता है | इस तरह के नाटकों में ना कोई समस्या का समाधान होता है और ना ही कोई आदर्श | सिर्फ और सिर्फ व्यक्ति (पात्र) की वास्तविक स्थिति आपके सामने होती है, वो भी बिना लाग-लपेट के, बिना आवरण के | द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद इस नाट्य-शैली का यूरोप में जन्म हुआ | शुरू में ज़्यादातर नाटक फ़्रांस में लिखे और मंचित किये गए | बेकेट,आयनेस्को,जेने , आदमोव जैसे प्रमुख नाटककार हुए | अस्तित्ववाद की कोख से जन्मे एब्सर्ड नाटकों में सार्त्र, कामू और नीत्से के अस्तित्ववादी दर्शन का भी असर था | नाटककार कामू का कहना था – अस्तित्व की ‘एब्सर्डीटी’ की पहचान करके ही मनुष्य, मनुष्य होने का गौरव हासिल कर सकता है | शुरूआती दिनों में एब्सर्ड नाटकों की बहुत आलोचना हुई | ‘वेटिंग फॉर द गोडो’ जैसे नाटक को बकवास और उलजुलूल नाटक कहा गया लेकिन इसे नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ | अपने देश में हिंदी के एक प्रसिद्द रचनाकार भुवनेश्वर ने 1935 में ‘ताम्बे का कीड़ा’ नाटक लिखा था जिसमें वो सब कुछ था जो एब्सर्ड नाटकों में होता है | डॉ. गिरीश रस्तोगी जैसे आलोचक इसे विश्व का पहला एब्सर्ड नाटक मानते हैं लेकिन इससे पहले 1925 में प्रकाशित द.रा.बेंद्रे के लिखे कन्नड़ नाटक ‘सायोआटा’ में वो सब कुछ था जो भुवनेश्वर के नाटक में था | लेकिन जैसा अक्सर होता है,प्रचार–प्रसार में हम पीछे रहे और एब्सर्ड नाटकों का श्रेय यूरोप को ही मिला | Series: Natya Darpan Title : Rengte Jeev ( Hindi adaptation of an Odiya Play ‘ Sarisrip’) Writer :Manoranjan Das Hindi Adaptation: Govind Chandra Mishra Director : Dina Nath Assistt.-K.K.Narula, Sudarshan Kumar Artists :Shyam Arora, Suryakant, Naresh Suri, Suchitra Gupta, Meena Williams, Jaimini Kumar Veerendra Refurbished by Sh. Vinod Kumar, Programme Executive,CDU,DG;AIR. This play was first broadcast on 11.3.74 A presentation of Central Drama Unit (CDU), DG:AIR