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Battle of Aror | Mohammad bin Kasim vs Raja Dahir | Arab Conquest of Sindh | Medival India 2 года назад


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Battle of Aror | Mohammad bin Kasim vs Raja Dahir | Arab Conquest of Sindh | Medival India

सिंध आज पाकिस्तान का हिस्सा है लेकिन सिंध ऐतिहासिक रूप से भारतीय भूभाग का क्षेत्र रहा है। इसी कारण सिंध हमारी आत्मा में भी बसता है और राष्ट्रगान में गर्व से उच्चारित होता है। इसी सिंध के गौरवपूर्ण इतिहास के एक सुनहरे अध्याय का नाम है राजा दाहिर। साल 711 ईस्वी में मोहम्मद बिन कासिम ने अरोर में राजा दाहिर से युद्ध किया और इस युद्ध का परिणाम निर्णायक होने वाला था। इस युद्ध का परिणाम आने वाले भारत के भविष्य में एक ऐसा भारी बदलाव लाने वाला था जिससे भारत के शासक वर्ग का ही नही बल्कि कई सामान्य वर्ग के भारतीयों का भविष्य भी हमेशा के लिए बदल जाने वाला था। ईरान से होते हुए भारत में प्रवेश करने के लिए उन्हें सीधे तौर पर सिंध को पार करना पड़ता। सिंध राज्य की सीमाएं उत्तर में मुल्तान, दक्षिणी पंजाब पश्चिम में मकरान तक, दक्षिण में अरब सागर और पूर्व में राजपुताने तक फैली हुई थी। देखा जाय तो सिंध भारत के ऊपर होने वाले किसी भी आक्रमण के लिए एक ढाल की तरह कार्य करता था। हजरत मोहम्मद साहेब की मृत्य 632 ईस्वी में हुई और उसके बाद उनके उत्तराधिकारी खलीफा कहलाए। तत्कालीन इराक के शाह हज्जाज को इस्लाम के परचम को भारतीय भूभाग पर भी फहराने की तलब मची हुई थी लेकिन बिना खलीफा के आदेश के वो सेना को भारत की तरफ अग्रसर नही कर सकता था। आज के समय के ओमान में उस समय माविया बिन हारिस अलाफी और मोहम्मद बिन हारिस अलाफ़ी ने खलीफा के विरुद्ध बगावत कर दी जिसमे अमीर सईद मारा गया । खलीफा की सेना ने जब दोनो के विद्रोह का कमर कसी तो दोनो भाई भाग कर अपने साथियों के साथ मकरान पहुंचे। शरण में शत्रु को भी आश्रय देना सनातन धर्म की परंपरा रही है ऐसे में जन्म कर्म से ब्राम्हण राजा दाहिर ने उन्हें शरण देकर अपनी सुरक्षा में रख लिया। बगदाद के गवर्नर ने राजा दाहिर को कई पत्र लिखे लेकिन राजा दाहिर ने उन्हें खलीफा को सौंपने से मना कर दिया। इस कारण खलीफा और अल हज्जाज़ की नजर दाहिर पर आकर टिक गई। सिंध पर आक्रमण की एक वजह ये भी समझी जाती है। सिंध पर हुए अरब हमलों का उस समय लिखी किताब चचनामा में जिक्र मिलता है। अरबवासी उस वक्त आज के श्रीलंका को सेरेनदीप के नाम से बुलाते थे। सेरेन दीप से अरब व्यापारियों का व्यापार होता था। इसी बीच जब सेरेन दीप के शासक का तोहफा लेकर खलीफा के पास जा रहे जहाजों को सिंध के पास के समुद्र तट के पास स्थित देबलपुर बंदरगाह के पास लूट लिया गया। इराक के शाह अल हज्जाज़ ने आनन फानन में राजा दाहिर के पास संदेश भेजकर लुटेरों को पकड़ने और लूटे हुए सामानों की क्षति पूर्ति करने का आदेश दिया। दाहिर एक स्वाभिमानी राजा थे। उन्होंने अपने राज्य में किसी और शासक के आदेश को अपनी स्वायत्त पर हमला समझा और अल हज्जाज का आदेश मानने से इंकार कर दिया। खलीफा वालिद से मिले आदेश के बाद हज्जाज ने अपने सेना नायक उबैदुल्लाह के नेतृत्व में बड़ी सेना सिंध की तरफ रवाना की लेकिन सिंध कोई कांच का घर तो था नहीं। राजा दाहिर के पुत्र जय सिंह के नेतृत्व में सिंध की सेना ने युद्ध में उबैदुल्लाह को मृत्यु का तोहफा देकर काल के गाल में भेज दिया और उसकी बची खुची सेना का भी सफाया कर दिया। दूसरी बार सेना बुदैल के नेतृत्व में भेजी गई जिसमे घुड़सवारों और पैदल सैनिकों की संख्या पहले के मुकाबले काफी ज्यादा थी। साथ ही कई नए सैन्य उपकरण भी थे लेकिन अंजाम वही ढाक के तीन पात। जय सिंह ने बुदैल को भी पराजित कर युद्ध में उसे मार डाला। सिंध की ताकत का अनुमान अब इराक में बैठे हज्जाज के साथ साथ बगदाद के खलीफा को समझा आ रहा था। शाह हज्जाज ने सिंध पर आक्रमण करने के लिए इस बार 17 वर्षीय मोहम्मद बिन कासिम को चुना और उसके नेतृत्व में 6000 घुड़सवारों 8000 पैदल सैनिकों की सेना भेज दी गई। सिंध आते वक्त रास्ते में मोहम्मद बिन कासिम को मोहम्मद हारून से सहायता मिली। हारून ने मोहम्मद बिन कासिम को अपनी 6000 की ऊंटों की सैन्य टुकड़ी के साथ साथ पांच बलिस्ते भी दिए। बलिस्ते तोप की तरह का हथियार था जिससे बड़े गोल पत्थरों को फेंका जा सकता था जो किले की मोटी मोटी दीवारों को तोड़ सकने की क्षमता रखता था। सिंध पहुंचने से पहले अब्दुल अस्मत जहां के नेतृत्व में एक और सैन्य टुकड़ी मोहम्मद बिन कासिम के साथ जुड़ गई जिससे मोहम्मद बिन कासिम का सैन्य बल 25 हजार के बीच जा पहुंचा। सिंध में पहला आक्रमण देबलपुर पर हुआ। उस समय मान्यता थी की जबतक देबलपुर के मंदिर का ध्वज आकाश में लहराता रहेगा तबतक देबलपुर किले को कोई जीत नहीं सकता। मोहम्मद बिन कासिम ने पहले देबलपुर में तैनात राजा दाहिर की सेना को हराया फिर देबलपुर मंदिर का ध्वज गिरा दिया। इससे उसे मनोवैज्ञानिक बढ़त मिल गई और इसके बाद देबलपुर के किले को जीत लिया। वहां भारी मात्रा में तोड़ फोड़ की। सभी मंदिरों को तोड़ दिया गया। देबलपुर के मंदिर के गुम्बद को भी गिरा दिया गया। इसके बाद धर्म परिवर्तन, लूट और मार काट का दौर चला जिसमें काफी तबाही हुई। देबलपुर से कासिम उत्तर दिशा की तरफ बढ़ा। उत्तर में स्थित निरून शहर एक बौद्ध सामंत के अधीन था। उसने मोहम्मद बिन कासिम से हृदय परिवर्तन के उम्मीद में आत्म समर्पण कर दिया। निरुन पर अपना अधिकार सुदृण करने के बाद कासिम ने सेहवान जिसे तब सदुसान के नाम से जाना जाता था, उस पर भी अधिकार कर लिया। इसके बाद निरूण और सदुसान के बौद्धों ने तबाही का वो मंजर देखा जिसकी वो कल्पना भी नहीं कर सकते थे। अरोर में आखिरकार राजा दाहिर और मोहम्मद बिन कासिम का अमना सामना हुआ। राजा दाहिर बहादुरी से लड़े लेकिन अपने ही लोगों की विश्वासघात और शत्रु से जुड़ जाने के कारण अरोर के युद्ध में राजा दाहिर लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। ये युद्ध निर्णायक था। इसने भारतीय भूभाग पर इस्लाम के आवागमन का रास्ता पैवस्त कर दिया था।

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